Friday, October 20, 2023

Today's meditation thoughts

एक पथिक था। चलते-चलते उसे प्यास लगी। उसने एक कुँआ ढूंढा। किनारे पर पनिहारिनें  पानी भर रही थीं। उसने एक से कुछ पानी मांगा। प्यास बुझाई, और आगे चला।

थोड़ा आगे जा कर दोबारा प्यास लगी, दोबारा कुंआ ढूंढा, पनिहारिन से पानी मांगा, पिया। 

पथिक ने किसी पनिहारिन से नहीं कहा, "लाओ, अपना मटका मुझे दे दो, मैं उठा लेता हूँ।" 


प्रेम का भी ऐसा ही है। जब हमें प्रेम की व्याकुलता होती है, तब हम पास के कुंए पर किसी भी पनिहारिन से थोड़ा सा पानी  पी कर उस समय की प्यास बुझा लेते हैं। फिर अगला गाँव, अगला कुंआ। 

******************************

सदा ही संभव है, कि एक मटकी सर पर उठा कर चला जाए। रेगिस्तान में लोग करते भी हैं - मशकें उठा कर चलते हैं। पर ज़रखेज़  जगहों पर मटकी उठाने की ज़रूरत नहीं। 


जब हम आध्यात्मिक मार्ग पर चलते हैं, तब भी, आज ये सत्संग, आज वहाँ गुरुजी, आज ये पूजा, कल वो। सब जल प्यास बुझाते हैं, पर अगर मटकी अपने साथ ही हो, तो किसी और पर कोई निर्भरता नहीं रहती। उस से ये रहता है कि थोड़ा संयम से चलना पड़ता है। अपने आप स्थिरता आ जाती है, सौम्यता भी। किसी और की प्यास बुझाने का मन भी। 


और अगर कुंआ ही मन में खुद जाए तो? अगर अपने भीतर की हर प्यास को बुझाने का सोता मन में ही हो तो? 

ऐसा कभी नहीं होता। निरंकारियों के लिए भी नहीं। कुंआ सदा से सब का है। उस में निजता नहीं है। हो ही नहीं सकती। 


क्या अपनी मटकी उठा लेना पनिहारिनों से मांगने से बेहतर है? 

अपने अपने चरित्र पर है। किसी को स्थिरता नहीं चाहिए, नित नूतनता ही चाहिए। ऐसे लोग सर पर मटका नहीं उठा सकते। उठाना भी नहीं चाहिए। वे सदा ही जल के भिक्षु रहेंगे, पर उनकी प्रकृति ही ऐसी है। 

जब मांग मांग कर थक जाएँ, तब अपना मटका उठा लेना चाहिए। 


No comments: