Friday, August 26, 2011

Sanskaar..

The glass veil
is not made of glass
it is made of
centuries of shame
heaped upon our collective shoulders
and left there
to become
in time
the fertile manure of "sanskaar"
from which,
will emerge
millions of shoulders
who are genetically programmed
to carry the burden of shame
and to transfer it to other shoulders
no matter how unwilling.

Until , one day
a mutation comes
and refuses to carry
the centuries old burden...

To be contd..

Thursday, August 25, 2011

Another favourite remembered..

लिखा था जिस किताब में, कि इश्क तो हराम है,
हुई वही किताब गुम, बड़ी हसीन रात थी॥

सवाल गुम, जवाब गुम,

बड़ी हसीन रात थी॥ 

I don't know who wrote this, but its an interesting sher, no? 


Tuesday, August 09, 2011

nal devta ki kahaani

बहुत दिन हुए, एक झुग्गी झोंपड़ी में एक नल था. वो नल, उस पूरी झुग्गी बस्ती में पानी का इकलौता जरिया था, सो उस का बड़ा मान था.. गर्मी में लोग उस नल के आस पास मेला करते, उसकी पूजा करते, कि घरों में पीने का पानी पहुंचे. लोग बहुत सुबह से उस नल के सामने आ कर बैठ जाते, कि कब पानी आये और कब वो भरें. कभी कभी तो उस तक पहुँचने के लिए मुठभेड़ हो जाती थी.
इस सब से, नल को धीरे धीरे अपने पर गुमान होने लगा. वो समझ गया, कि इन बस्ती वालों का मेरे अलावा सहारा कोई नहीं.. मैं एक दिन न चलूँ, तो ये सब प्यासे मर जायेंगे - दुनिया में कितने ही नल रोज़ बनाते हैं, परे मेरे जैसा भला काम शायद ही कोई नल करता हो.  लोग तो नल को यूँ ही बड़ा भला मानते थे, धीरे धीरे नल भी स्वयं को बड़ा भला मानने लगा - अपने भले मन पर उसे बड़ा नाज़ होने लगा.

पहले बस्ती के लोग उस को महत्व देते, तो वो मुस्कुरा उठता था - मैं बस एक नल, मेरी क्या बिसात, जो मुझे इतना सर चढाते हो.. मैं न लगता, कोई और नल लग जाता.. ये तो मेरा सौभाग्य है कि मेरा जन्म सफल हुआ - इस बस्ती को पानी दे कर, न कि किसी १० नल वाले स्नानघर में लग कर.. पर इस में मेरी कोई भलमनसाहत नहीं.. ये भगवन की मुझ पर कृपा है.. 
बस्ती वाले कहते - ये तो तुम्हारी विनम्रता है भैया, नहीं तो तुम भी तो अमीर महल में लग सकते थे - पर तुम यहाँ आये - तुम इतने साल दर साल पानी दिए जाते हो, न थकते हो, न अघाते हो.. ये तुम्हारा बड़प्पन नहीं तो क्या है.. 

नल को धीरे धीरे इस बात पर विश्वास होने लगा और वो सच ही स्वयं को बड़ा भला नल समझने लगा.. यहाँ तक कि कुछ दिन बाद उसे लगता - मैं इतना भला जीवन जीता हूँ - ये लोग मेरी और उपासना क्यूँ नहीं करते? मुझे नल बाबा या नल देवता क्यूँ नहीं बुलाते ? कैसे अहसान फरामोश लोग हैं, मैं इतना भला नल, और मेरी कोई कद्र नहीं! 

कुछ दिन बाद, ये दंभ देख कर भगवन को ठिठोली सूझी. उन्होंने उस जगह पर पाईप में कचरा फंसा दिया, जहां से नल को पानी जाता था. नतीजा? लाख कोशिश  करे, पर नल खाली! सब लोग हैरान! हमारा नल, और खाली? नल भी हैरान! पानी नहीं आएगा, तो दूंगा कहाँ से? फिर ये लोग मुझे महान कैसे समझेंगे ? मेरी साधना का क्या होगा? मेरे चमत्कार का क्या होगा?
पर पानी को न आना था, न आया.. लोग नल को कोस कोस कर चले गए.. नल सारी  रात बैठा अपने भगवन से लड़ता रहा.. "ये क्या किया? तुम्हारे कारण कितने लोग प्यासे रहे आज? मैंने इतनी साधना की, उसका ये परिणाम? "

सुबह तक , जब भगवन के कान पक गए शिकायत सुन सुन कर, तो भगवन नल के पास आये, और बोले,
"सुनो नल, महानता न तुम में है, न उस पाइप में जो तुम तक पानी लाता है, न उस तालाब में जिस से ये पानी निकाला जाता है. महानता मुझ में भी नहीं.. महानता सृष्टि के इस अविरल चक्र में है, जिस के कारण बारिश होती है, तालाब भरता है, पाइप आता है, और तुम, नल पानी देते हो. पानी चाहे तुम्हारे मुंह से निकलता है, पर तुम उसका स्रोत नहीं हो - न ही तुम उस के लिए कोई श्रेय ले सकते हो.  तुम्हारे मुंह से पानी निकलता ज़रूर है, पर तुम उस के सिर्फ वाहक हो. और ये वाहक होना, तुम्हारा सौभाग्य है, कि तुम्हारा जन्म अछे काम में लग रहा है. तुम किसी बुरी जगह पर भी लगाये जा सकते थे, तुम भली जगह पर भी मटमैला पानी दे सकते थे - पर ये बात, कि तुम में इतने साल में कोई खराबी न आई, और तुम भली जगह लगे, जहां तुम्हारी ज़रुरत थी, ये दोनों बातें, तुम्हारा सौभाग्य हैं, तुम्हारी महानता नहीं. ये याद रखोगे , तो खुश रहोगे.. सिद्धि मुट्ठी की रेत है - पकड़ो, तो फिसले, न पकड़ो, तो पड़ी रहे.. "

जब तुम्हे सिद्धि मिलती है, जब तुम प्रवचन करते हो, तो वो प्रवचन तुम्हारे मुंह से निकलते ज़रूर हैं, पर तुम उनके मालिक नहीं, अधिकारी भी नहीं.. तुम सिर्फ नल के जैसे हो, उनके वाहक. तुम्हारे प्रवचन, प्रकृति के नियम जैसे , शाश्वत सत्य हैं - उनकी महानता का कोई जनक नहीं.. कोई मालिक नहीं.. वे अपने आप में सत्य हैं.. जब वे सत्य तुम्हे सिद्धि के रूप में मिलते हैं, तो वे रेत की तरह तुम्हारी उँगलियों से गुज़र रहे हैं बस.. उन्हें  छू कर तुम्हारी उंगलियाँ पवित्र होती हैं, पर ये तुम्हारी उँगलियों की महानता नहीं.. उनका सौभाग्य है..