व्यंग्य सच में साहित्य की सब से कठिन विधाओं में से एक है। प्यार से चपेट मारना, वह भी ऐसे कि सामने वाला मार भी खाए और हँसे भी, शर्मिंदा भी हो और मुस्कुरा भी रहा हो - पञ्जाबी में इसके लिए एक कहावत है - भिगो कर जूते मारना।
हरिशंकर परसाई इस विधा के प्रेमचंद हैं। पुस्तक में करीब ४४ संकलित व्यंगय हैं - कुछ छोटे छोटे छोटे, कुछ ४-५ पन्नों के। सभी रुचिकर हैं, गुदगुदाते हैं।
इन्स्पेक्टर मातादीन चाँद पर, भेड़ें और भेड़िये, सदाचार का ताबीज़, भोलाराम का जीव - ये व्यंगय कथाएँ लगभग सभी ने पढ़ी हुई हैं। इस संकलन में ये व्यंग्य मुझे अच्छे लगे:
सत्य साधक मण्डल
अश्लील पुस्तकें
क्रांतिकारी की कथा (ये सच में मजेदार है)
कंधे श्रवनकुमार के - सोचने पर मजबूर करती है
कैलंडर का मौसम - नया साल पास हो तो इस से अच्छा व्यंग्य है ही नहीं!
संस्कारों और शास्त्रों की लड़ाई - सामाजिक बदलाव का यह नजरिया अच्छा है
व्यंग्य पढ़ने में जो रस पाठक को आना चाहिए, वह तो आता ही है, जो आत्मनिरीक्षण होना चाहिए, वह भी प्रचुर मात्रा में होता है।
इस पुस्तक को अवश्य पढिए। संकलन वाकई अच्छा है।
No comments:
Post a Comment