पुस्तक में जो कहानियाँ हैं, उनके नाम हैं - अपरिचित, उसकी रोटी, ग्लास टैंक, सुहागिनें, आखिरी सामान, फौलाद का आकाश।
यह समीक्षा में इस लिए लिखा जा रहा है क्यूंकि प्रकाशक ने पुस्तक में सूची प्रदान करने की ज़हमत नहीं उठाई। 2 पन्ने वहाँ बचा लिए गए हैं। ना प्रस्तावना (Foreword) है। 1 paragraph में मोहन राकेश का सारा जीवन बयान कर दिया गया है। यदि Penguin को हिन्दी में किताबें निकालनी हैं, तो थोड़ा ध्यान उनकी मर्यादा पर भी देना चाहिए।
अब पुस्तक पर आते हैं।
इस पुस्तक की समीक्षा करना सरल भी है और कठिन भी।
सरल इसलिए कि ये कहानियाँ पुराने जमाने की रेल गाड़ियों सरीखी हैं। शुरू होती हैं एक ढर्रे पर - समतल, सपाट, आसान सी। फिर जैसे रेल गाड़ी रफ्तार पकड़ती है, वैसे ही कहानियाँ अपनी चाल बदल लेती हैं और किसी जीवन की विकटता को सरलता से हमारे सामने रख जाती हैं।
विकटता में समस्या ये है कि उसे कनखियों से देखना आसान है। इंसान यूं सोच सकता है कि "ऐसा थोड़ी होता है!" या "यूं तो बस कहानियों में होता है। असल ज़िंदगी में थोड़ी!?"
पर मोहन राकेश जी की कहानियों की विकटता पाठक के सामने कोई न कोई चेहरा ले आती है। किसी असली औरत का चेहरा - जिस ने ठीक इसी तरह से - दबी ज़बान से, 1-2 अधकहे जुमलों से, अपने जीवन का यथार्थ हमें बताना चाहा था। हमने अनदेखा कर दिया था। हम हंस दिए थे - खिसियानी सी हंसी जो बच निकालने के काम आती है।
वे सब स्त्रियाँ, उन सब स्त्रियों के भूत, इस पुस्तक के पन्नों में बैठे है। जयूं जयूं वरके खुलते जाते हैं, वे सारे भूत सशक्ल हमारे सामने आते हैं। हम उनका सामना नहीं कर पाते।
इसलिए यह पुस्तक कठिन है - यह जीवंत है।
दूसरी वजह यह भी है कि कहानियाँ कई दशक पहले की हैं। पर उनकी घटनाएँ, आज भी समसामयिक हैं। पता नहीं ये समय का ठहर जाना है या हमारे समाज की सामूहिक विफलता।
112 पन्नों की यह पुस्तक 6 अलग संसार अपने भीतर सँजोये है। इसे जरूर पढ़ें। सुहागनें तो खैर सबसे जानी मानी कहानी है ही, बाकी सब कहानियाँ भी अपनी बात बड़ी मार्मिकता से रखती हैं।
2 comments:
सार्थक समीक्षा
धन्यवाद अनीता जी!
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