कहते हैं कि डूबते को तिनके का सहारा होता है। पर उस तिनके की कहानी तिनका बनने से शुरू नहीं होती। शुरू में वह तना होता है - प्रमुख सहारा। ठीक तने की तरह तन कर खड़ा हुआ।
फिर उसके पास कुछ वक़्त की कमी होना शुरू हो जाती है, कुछ हम से गलतियाँ होनी शुरू हो जाती हैं - डाल में नामक तेज़, कपड़े ठीक से इस्तरी नहीं, घर आए दोस्त के साथ थोड़ा सा हंसी मज़ाक, उनके हमारी किसी सहेली के साथ फ्लर्ट करने पर हमारा चिढ़ जाना - इन सब बातों से तने का मन हम से उतारने लगता है। इस में तने का कोई दोष नहीं। इस तरह, उदासीनता के मारे, तना टहनी बन जाता है, फिर टहनी से सीख, और इसी तरह घटते प्रेम के साथ साथ, तना भी घाट कर तिनका बन जाता है।
तब फिर, डूबता इस तिनके का सहारा क्यूँ ले?
क्यूंकि वह जो तना है न, जो तने से टहनी, टहनी से सींख बना है, वह हमें किसी और का सहारा लेने नहीं देगा। खुद १० मधुशाला लिख आए, हमें झट से याद दिला देगा कि हाला प्रेम में हराम है।
फिर हमें सिखाया जाता है कि डूबते को तिनके का सहारा। पर किस डूबते को तिनका बचाने आया है? ये पाठ हमें पढ़ाया ही इसलिए जाता है कि जब हम डूब कर मर जाएँ तो कोई ये गिला न कर सके कि तिनके ने बचाया क्यूँ नहीं? न बचाने का सामर्थ्य है न अभिलाषा। जब तुम्हें ये जताया जाने लगे कि तने से तिनका होने का सफर तुम्हारे कारण है, तो यह भी समझ जाना कि तिनका किसी को नहीं बचाता। तिनके को कोई फर्क नहीं पड़ता। तिनके को पता भी नहीं चलता।
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