Thursday, March 01, 2012

नवरस की दुकान

मैंने नवरस की दुकान लगायी
सबसे ज्यादा, बिका ग़म 

शांति की ओर
किसी ने नज़र भी न उठाई 

श्रृंगार
खुद ही बिक गया

वीभत्स और भयानक को
चांदी का वर्क लगाया
तो कुछ लोग ले गए

हास्य
हँसते खेलते निकल गया

वीर रस
तेज़ गर्जना के साथ,
पर कम लोगों में ....
जिसने लिया,
पूरे मन के लिए लिया...
ये रस
आधा सेर नहीं मिलता...
पूरा सर ही खपाना पड़ता है..

अदभुतं
मेरे पास ही रखा है
इस के बिना
सांस नहीं आती..
oxygen सा है..

3 comments:

How do we know said...

for non Indian readers: this post is inspired by the navarasas in Indian theater tradition..
http://en.wikipedia.org/wiki/Rasa_(aesthetics)

translation is not possible..

Himanshu Tandon said...

Nice and easy and just as effective. Wonderful imagery....

This is what comes to my mind...

वीभत्स और भयानक के खरीददार
पहले चोरी छुपे आते थे, पर अब
धूप के साथ निकलते हैं, इठलाते हैं
और काले कोट और सफ़ेद टोपी
कमीज़ की जेब में लिए चलते हैं
अजीब लगता है पर फिर भी ना जाने
सबसे ऊंचे दाम पर यह ही बिकता है

हास्य, पहले सरल, सहज छलता था
बच्चे चिड़िया की कहानी के साथ पी लेते थे
पड़ोसी शक्कर की कटोरी के साथ लौटा जाते थे
आज कल टीवी के धुंधलके में इसे टटोलना पड़ता है
थोड़ा कुरूप और ज़्यादातर दो-धारी हो गया है
पर फिर भी धड़ल्ले से बिक जाता है

How do we know said...

Hi HT: TRUST you to improve a post in a way that the writer cannot imagine :-) lurvely!!