ढाणी खेत में बने घर को कहते हैं।
ये पुस्तक छोटे छोटे लेखों के द्वारा हमें उन ढाणियों के संसार में ले जाती है।
कैसे हैं वो लोग, जो इन छोटे घरों में, ऐसे वातावरण में जहां न छाँव न पानी, अपना घर बनाते हैं?
इंदिरा नहर ने इस मरुभूमि को हरित करने में तो सहायता की है, पर उस संस्कृति से क्या खो गया है?
पुस्तक की शैली सरल और लेखनी रोचक है।
छोटे छोटे, आसानी से समझे जाने वाले शब्द हैं। गाँव की भाषा भी समझा कर लिखी गई है। इसे पढ़ते हुए पता चलता है कि साहित्यिक लोग कितने अबूझ हैं। कितना कुछ है जो हम नहीं जानते। कितनी सारी दुनियाऐं हैं, जिनसे जीवन जीने की कला सीखी जा सकती है।
पतली सी पुस्तक है, पर रोचक इतनी है कि एक मुश्त पढ़ी नहीं जा सकती। एक अध्याय पढ़ कर कुछ देर उस दुनिया में विचारणे का मन करता है, फिर कुछ दिन बाद अगला अध्याय पढ़ना शुरू किया जाता है।
वह जीवन जो विलुप्त होते होते भी ठहर जाता है, रेगिस्तान के कीकर या आक की तरह अपने जीने भर का इंतेज़ाम कर ही लेता है - यह पुस्तक उस जीवन में झाँकने को, एक झरोखा है।
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