अगर कोई बहुत प्रख्यात कवि हो, और उस के बारे में आपको बीस-एक साल बाद पता चले, तो यह कवि के नहीं, आपके बारे में कुछ कहता है। मन पूछता है - कहाँ थे तुम? तुम्हें क्यूँ नहीं पता था इसके बारे में?
ये किताब भी कुछ ऐसी ही है। इसे पढ़ कर अफसोस होता है कि पहले क्यूँ नहीं पढ़ा, खास तौर पर उन वक़्तों में, जब सपने देखना, आत्ममंथन करना, अच्छा भी लगता था? जबकि यह किताब लिखी जा चुकी थी?
बरसात में बड़ी जब विकराल हो जाती है
तो किनारों को पसंद नहीं करती
हर ताकतवर की तरह
वह भी अपने आधार को काटने लगती है।
एक दिन घबराए हुए शब्द आए और कहने लगे
- हमें बचाइए
जगह जगह से हम काट दिए गए हैं
पंक्ति से हटा दिए गए हैं
या तो हमारे विकल्प खोज लिए गए हैं
या हमारे बिना काम चलाया जाने लगा है
इसी कविता में थोड़ा आगे जा कर लिखा है:
सबसे आगे ही था वंचित पुण्य
कहता हुआ कि पाप घास की तरह फैल गया है
अचरज के साथ खड़ा था पृथुल पाप
कि मुझसे अब कोई नहीं डरता।
आश्वासन, पेड़ की आजादी, तकरार, और ऐसी कितनी ही कविताएँ इस संग्रह में हैं, जो एक पूरी कहानी सहलता से सुनाती हैं।
जब कविता के शब्द इतने वाक्पटु हों, तो समीक्षक को कुछ कहने की ज़रूरत ही क्या है?! ये शब्द अपने उजाले के स्वयं साक्षी हैं।
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