“हाँ जी? आ गए? मैं हूँ!”
रोज़ की भांति सुधि ने दिया
जलाया, और फिर टेक ले कर बैठ गई, और पूरे दिन का हिसाब किताब बताने लगी। कौन मिलने
आया था, किसको ठीक किया, किसको लौटा दिया, क्या अच्छा लगा, क्या नहीं.. मन भर के
बातें करने के बाद वह ज़ोर से खिलखिला कर हंसी। फिर ध्यान लगा कर सुनने लगी। सुनने
की मुद्रा में कभी सर हिला देती, कभी ‘अच्छा, ठीक है’ जैसे स्वरों से स्वीकृति
जताती। एकाएक उठ कर कागज कलम ले आई और लिखने लगी। लिख कर कागज दीपक की ओर बढ़ाती
हुई बोली, “ये देखो, नाम और जगह दोनों ठीक हैं न?”
थोड़ी देर में एक सेवादार ने
द्वार धीरे से खोल कर पूछा, “दीदी, आपको सोने से पहले और कुछ चाहिए?”
“हाँ। सुनिए, ये कागज कल
गेट पर दे देना तो। इन्हें मेरी आवश्यकता है। कल इन्हें सीधा मेरे पास ले आना।
कतार में मत रखना।“
“जी। ” कह कर सेवादार
द्वार से बाहर हो गई, और सुधि फिर से कमरे में अपने साथ।
हर बार की तरह कागज़ पहले
महाराज के पास ले जाया गया, जहां उन्होंने नाम और गाँव का नाम अच्छे से लिखा, ताकि
कोई गड़बड़ न हो, और फिर गेट पर भेज दिया।
सुधि, यूं तो उम्र में बड़ी
नहीं थीं, पर थी वे इस इलाके में दीदी। उनका आश्रम बहुत जल्दी बहुत प्रसिद्ध हो
गया था। लोग दूर दूर से आते थे, और झोली भर कर जाते थे। सुधि दीदी और महाराज ‘कृष्ण
कथा वाचक’ थे। ये लोग सन्यासी होते हैं, जो कृष्ण कथा गाँव जा जा कर सुनाते हैं।
जिस गाँव में कथा सुनाते हैं, वहीं के मंदिर में रह लेते हैं। ऐसे ही एक दिन ये
दोनों कथा वाचक इस गाँव पहुंचे थे, पर किस्मत से उस दिन गाँव के पंच की हालत ठीक
नहीं थी। सुधि भी पंडित जी के साथ चल पड़ी, और वहाँ पहुँच कर जाने कैसे चमत्कार से,
पंच जी को ठीक कर दिया। बस, फिर गाँव के लोग उन्हें कहाँ जाने देते? मंदिर के
पुजारी जी का कमरा खाली कर कर सुधि दीदी को दिया गया, और अगला कमरा महाराज जी को।
महाराज जी छू कर ठीक नहीं करते थे। वे बस कथा करते थे, और दीदी का ध्यान रखते थे।
उनका खाना पीना, सोना, कितने लोगों से मिलना है, कब थक कर बैठना है.. महाराज जी ने
मानो सुधि को अचानक सह-कथा-वाचक से बेटी बना लिया था। जैसे जैसे सुधि की ख्याति
बढ़ती गई, महाराज जी और भी गौण बनते गए, परंतु सुधि का ध्यान और भी तन्मयता से रखने
लगे।
जिस मंदिर में उन्होंने एक
रात आश्रय लिया था, वही अब उनका आश्रम बन गया था। दूर दूर से लोग आते थे। सुधि
दीदी कुछ को शिफ़ा देतीं, कुछ को दिलासा, और कुछ को अपना संयम। वे कैसे छू कर
बीमारी दूर कर देती थीं, किसी को पता नहीं था, महाराज जी को भी नहीं। पर यहाँ,
जहां दूर दूर तक डिस्पेंसरी भी नहीं, वहाँ
सुधि दीदी को भगवान ने सचमुच अपना स्वरूप बनाकर ही भेजा था।
विंध्य प्रदेश के बारे में
बाहर के लोगों को ज्यादा कुछ पता नहीं है। हरे जंगल, नदियां, यूं ही फुट पड़ते
झरने, और बहुत सारी गरीबी। यहाँ खेती के आयाम बहुत सीमित हैं, और उससे होने वाली
आमदनी उसे से भी अधिक सीमित। कुछ असीमित है तो गरीबी। गरीबी यहाँ का नॉर्मल है।
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अगले दिन, रोज की ही तरह
कतार लंबी थी। गेट पर एक सज्जन ने अपना नाम और गाँव का नाम दिया, तो गेट वालों ने
उन्हें बड़े आदर के साथ कतार से बाहर कर पानी पिलाया। नए आने वालों ने नाक भौं सिकोड़ी,
पुराने आने वाले बस हौले से मुस्काए। दीदी को कभी कभी सँदेसा मिलता था, उन लोगों
को सीधे दीदी के पास ले जाया जाता था। इस में भेद भाव की कोई बात नहीं। ये नाम तो
सीधे भगवान से आते थे मानो।
जिन सज्जन को निकाला गया
था, उनका नाम था ज्ञानचंद (गियानू)। वे पहली बार आए थे। बड़े भौचक्क! उन्होंने किसी
से कोई सिफारिश नहीं की थी, किसी को बताया भी नहीं था वे यहाँ आ रहे हैं। कल उनके गाँव
के मुखिया जी ने कहा था, “बिटिया की टांग ठीक नहीं होती तो एक बार सुधि दीदी के
आश्रम में दिखाए आओ, क्या पता कुछ कर ही दें!”
गियानू जी ने बिना किसी को
बताए, बस ऐसे ही सफर शुरू कर दिया था। फिर ये कतार से निकाल कर विशेष आवभगत क्यूँ?
गार्ड ने बताया – दीदी कभी
कभी किसी आने वाले का दुख पहले से जान लेती हैं, उनके लिए सँदेसा सीधे भगवान से
आता है।
सेवादार उन्हें सुधि दीदी
के पास ले गए।
मुख पर दिव्य प्रकाश!
आँखों में तेज और करुणा का सा मिश्रण।
गियानू जी स्वत: ही
नतमस्तक हो गए।
“बिटिया की टांग ठीक हो
जाएगी। कोई चिंता नहीं। आप ही के कर्मों के कारण कष्ट है, आप ही के कर्मों से ठीक
भी हो जाएगा।“ सुधि दीदी ने मृदु, पर सटीक स्वर में कहा। गियानू जी ने ये सोचने की
चेष्टा भी नहीं की कि इन्हें बिटिया की पीड़ा बिन बताए कैसे मालूम। दैवी जनों को
पता चल ही जाता है।
“मेरे कर्मों से कैसे
दीदी?”
“अधिया में कितनी जमीन दिए
हो, और तिहैया में कितनी?”
“अधिया में 2 एकड़, और
तिहैया में 10 एकड़ दीदी”
“उन जमीन मजदूरों को कुछ
खाने को नहीं मिला न पिछले साल? फसल हो गई बर्बाद?”
“सबकी ही हुई दीदी, अकेले
मेरे ठेकेदारों की थोड़ी?”
“तो गियानू जी, जब उनके घर
नहीं चल रहे, तो आपकी बिटिया कैसे चलेगी?”
गियानू सकपका गया।
“अधिया और तिहैया तो हमारी
पुश्तैनी ठेकेदारी का तरीका है दीदी। सभी ऐसा ही करते हैं। तो फिर इस में गलत क्या
है? और है भी तो अकेली मेरी बेटी क्यूँ तकलीफ में है?”
“गियानू, बताओ तो, हम व्रत
कथा क्यूँ पढ़ते हैं?”
ये ज्ञान गियानू के बस का
न था। “व्रत कथा क्यूँ पढ़ते हैं का क्या मतलब दीदी? व्रत अनुष्ठान के लिए! बिना
कथा के व्रत कैसे पूरा होगा?”
“क्यूँ? पूजा में, व्रत
कथा का क्या महत्व है?”
गियानू को ये सवाल समझ
नहीं आया। जब सवाल ही समझ न आए, तो इंसान जवाब क्या सोचे। चुप चाप बैठ गया।
सुधि दीदी मुस्काई। “व्रत
कथा इस लिए पढ़ी जाती है, कि जो एक के साथ हुआ, उस से सब सीख लें। एक बात सोचो तो।
धूप में खटता हो किसान, बारिश, कीट से लड़ता हो किसान, और अपनी जमीन देने का, कोई आधी
फसल ले ले, या दो तिहाई फसल ले ले, ये न्याय है क्या?”
“तो दीदी, क्या करें? जमीन
मुफ़्त में दे दें?”
“यही तो आपको सोचना है
गियानू। पुराने जमाने में, राजा अपनी जमीन किसानों को देता था, तब भी दसई या छठ से
ऊपर कर नहीं लेता था। आप सोचिए, अधिया और तिहैया, इनका प्रभु के दरबार में क्या
जवाब देंगे आप?”
गियानू जी चुप कर गए। क्या
सचमुच उनकी बिटिया का दुख अधिया और तिहैया के कारण है?
“तो दीदी, जो मैं अधिया और
तिहैया छोड़ दूँ, तो मेरी बेटी ठीक से चल पाएगी?”
“गियानू, तुम्हारी बिटिया
ही नहीं, गाँव के और भी छोटे छोटे दुख दर्द कट जाएंगे। तौल के पलड़े बराबर रहें, तब
ही व्यवहार होता है। पलड़े कोई अपने ज़ोर से ऊपर नीचे कर तो लेता है, पर भूल जाता है
कि एक तुला उस के ऊपर भी तो है! ये उस तुला का वज़न पड़ा है तुम पर। घर जाओ, अधिया,
तिहैया के बदले दसई , छठ, के बारे में सोचो। मेरे पास दोबारा आने की जरूरत नहीं।
जब तुला के पलड़े बराबर हो जाएंगे, तब तुम्हारी बेटी यूं ही चलने लगेगी। ये बाट
उठाना, संतुलन समझना, ये आप कर्ता लोगों को समझ आने वाली बातें है। हम प्रभु नाम
में रमने वाले लोग है, तौल, बाट, पलड़े को कभी हाथ ही नहीं लगाया। पर जब कन्या ठीक
हो जाए, तो अन्नपूर्णा माता का व्रत करना, और व्रत कथा में अपनी बिटिया की कथा
कहना। जिसे भी, इस पूरे इलाके में, जब भी घर में कोई भी समस्या हो, वह अन्नपूर्णा
माता का व्रत करे और शाम को आपकी कन्या की कथा सुने और सुनावे। जैसे ही पलड़े बराबर
होंगे, घर की समस्या कट जाएगी। एक सुधि दीदी तो क्या ही कर लेगी, पर यह व्रत, बहुतों
का भला करेगा।
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कहने की आवश्यकता नहीं कि
जैसा सुधि दीदी ने कहा था, वैसा ही हुआ। अन्नपूर्णा माता का व्रत, सुनते हैं, अब भी
उस प्रदेश में होता है। सुधि दीदी और उनका आश्रम, दोनों को गुजरे बहुत समय बीता।
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Notes:
1. Adhiya and Tihaiya are contract farming terms in the
Vindhya region. In Adhiya, the landowner takes half of the produce, and in
Tihaiya, 2/3rd of the produce is taken by the landowner, even though
the farmer does all the hard work. Further, if the crop fails, the state govt
reimbursement comes only to the landowner, not the actual tiller, since all
contracts are verbal only. Not all landowners share this reimbursement with the
tillers.
'Half-half
farming': landlords win, tenants lose (ruralindiaonline.org)
2. Dasai is an imaginary term but it refers to one tenth of
the produce being taken as tax. 1/16, 1/10, and 1/6 were the agricultural tax
rates from Manusmriti to Arthashastra. In Arthashastra, it is standardized to
Chhath (1/6), which is where it remained till the middle ages, when Chauth (one
fourth) was introduced.
2 comments:
कर्मफल तो सचमुच मिलता है हम पूर्णतया सहमत हैं। आपकी कहानी ने बाँधे रखा अंत तक। बहुत अच्छी प्रवाहमय और कहानी में निहित संदेश आज के दौर के आत्मकेंद्रित होते ,स्वार्थ में डूबे लोगों के लिए समझना बहुत जरूरी है।
Sweta ji: धन्यवाद। इस प्रोत्साहन के लिए हृदय से आभार।
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