कुछ दिन पहले यूँ हुआ कि , मुझे महसूस होने लगा कि मेरी याददाश्त धीरे धीरे ख़त्म होती जा रही है.
मतलब, मेरा दादाजी के मरने के बाद भयंकर एक्सीडेंट हुआ था, पर मुझे याद ही नहीं आ रहा था. यहां तक कि अपने बच्चे की यादें भी ना के बराबर थीं। २-३ दिन पुरानी बातें, सालों से याद पहाड़े, मुझे कुछ याद नहीं आ रहा था. दफ्तर की मीटिंग्स की बातें भी नहीं.
मैं डर गयी.
पिछले २-३ दिन याद करने में बिताये हैं.
अच्छा नहीं रहा.
ज़्यादा कुछ याद नहीं आया. हर साल की १-२ मुख्य घटनाएं, बस. जो जीवन में सबसे महत्वपूर्ण घटा, बस वही. बच्चे का जन्म याद आया, उसे पहली बार गोद में लेना....
पर इनके अलावा, जो बातें याद आयी वे निश्चितत: दुखदायी हैं. उन से वे ज़ख्म हरे हुए हैं, जिन्हें भरना इस जीवन में संभव नहीं है.
२ दिन से, मन में इतना गुस्सा है, ,इतना रोष, जितना एक मन में समा नहीं सकता. आज यूँ ही कही सुनी हो गयी, जो इस घर में कभी नहीं होती. मैं चुप ही रहती हूँ. मेरी लेनी देनी, भगवान के हाथ.
अब समझ में आया, कि याददाश्त का चले जाना, कितनी अच्छी बात है. कितनी सुखद. हमारे प्रसन्नचित रहने के लिए, कितनी आवश्यक.
अब मैं बहुत खुश हूँ, कि मुझे कुछ भी याद नहीं रहता. जो २-३ दिनों में याद आया है, उसे भी भगवान भुला ही देंगे.
और अगर किसी दिन सच में यूँ हुआ कि किसी बिमारी के चलते कुछ याद न रहा, तो ये चिट्ठा, और इस पर की ये पोस्ट, दोबारा पढ़ लूंगी. समझ आ जायेगा, कि भले के लिए ही है.
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