Tuesday, September 08, 2015

Ghazal

Ghazal is not something I dabble in often.. but here's one that might make some sense..

for what its worth..

बड़े दिनों तक परियों पे ऐतबार रहा 
बहुत मसीहा का भी इंतज़ार रहा 

यास तो बाद में बनी राज़दाँ मेरी 
पहले उम्मीद का इंतज़ार रहा 

तुमने मुझसे क्यूँ वफ़ा ना की 
इतना भर उसने बार बार कहा

मुआफ़ करना, और भूल जाना, एक सी बात नहीं  
सीने का खंजर भुलाने में ही करार रहा 

1 comment:

Himanshu Tandon said...

It's not really a ghazal if the काफ़िया and the रदीफ़ are missing.
The last two verses needed a रदीफ़
These are essentially yours but I juggled a bit.

तुमने मुझसे क्यूँ वफ़ा ना की
बस उसके इतना कहने का इंतज़ार रहा

माफ़ करना और भूल जाना, एक सी बात नहीं
बस तेरे खंजर का सीने से पार जाने का इंतज़ार रहा

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These are my two cents on the 'khayaal'of the ghazal

मुझे तो काफ़ी थी तेरे ख़्वाब की दुनिया भी
बस रात भर यूँ ही नींद का इंतज़ार रहा

दरीचे पर दिल के कांच नया रख छोड़ा था
बस पत्थर का तेरे हाथ में आने का इंतज़ार रहा

मैं कब क़ाबिल था तेरे नाज़ उठाने को मगर
बस साँस रोके तेरी एक मुस्कराहट का इंतज़ार रहा

अश्क़ तो फिर पानी है हम आग के दरिया सहेजे हैं
डूब के पार हो भी जाते बस तेरे आने का इंतज़ार रहा