कहाँ कह रहे हो तुम
कुछ ऐसा
जैसा मैंने सोचा था ॥
कहाँ हाथों में हाथ डालने की कोशिश की तुमने ?
न आँखों में झाँक कर देखा शरारत से ।
"अच्छी लगती हो मुझे" इतना भर भी
कह नहीं रहे हो तुम
प्यार की बातें तो
खैर तुम कर ही नहीं सकते शायद।
बस अपने घर की चाबियों का छल्ला
मेरे हाथ में धरा है तुमने ।
तुम से तो मुई चाबियाँ अच्छी हैं -
कम से कम "छन " तो करती हैं!
5 comments:
Beautiful...
Fantastic poems. This and the previous ones. You must put more of these on your blog. They are simple, yet brilliant.
Hi Himanshu: Thank you.
Onkar sir: Thank you for the appreications! I am right now re-reading my old diaries and sharing some of the stuff from there.. not really "poetry" - more like emotions that one still identifies with a lot.
yup love the last para/stanza.
i m not understand hindi language
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