Monday, October 06, 2025

Ghazal by Ajmal Ajmali

 वक़्त-ए-सफ़र क़रीब है बिस्तर समेट लूँ

बिखरा हुआ हयात का दफ़्तर समेट लूँ


फिर जाने हम मिलें न मिलें इक ज़रा रुको

मैं दिल के आइने में ये मंज़र समेट लूँ


ग़ैरों ने जो सुलूक किया उसका क्या गिला

फेंके हैं दोस्तों ने जो पत्थर समेट लूँ


कल जाने कैसे होंगे कहाँ होंगे घर के लोग

आँखों में एक बार भरा घर समेट लूँ


तार-ए-नज़र भी ग़म की तमाज़त से ख़ुश्क है

वो प्यास है मिले तो समुंदर समेट लूँ


'अजमल' भड़क रही है ज़माने में जितनी आग

जी चाहता है सीने के अंदर समेट लूँ


Ajmal Ajmali

No comments: