एक बार, बहुत दिनों तक तुम्हारा कोई खत नहीं आया। उन दिनों फोन नहीं हुआ करते थे। मैं तुम्हारे परिवार से नहीं थी, तो तुम्हारे मुतालिक कोई तार भी मुझ तक नहीं पहुंचना था। पता नहीं था कि तुम लाम पर जीते हो या मर गए।
पर एक दिन मुझे समझ आ गया - न तार चाहिए, न फोन, और चिट्ठी भी ना आए तो कोई बड़ी बात नहीं। तुम जीते हो या मर गए, ये जानने के लिए किसी तीसरे की कोई ज़रूरत ही नहीं है।
बहुत महीनों बाद, तुम्हारी चिट्ठी आई। तुम जिस काम पर भेजे गए थे, वहाँ से कोई सन्देस भेजने या पाने की इजाजत नहीं थी।
"तू डरी नहीं?" तुमने चिट्ठी में पूछा था।
"डरना क्यूँ था?" मैंने जवाब भेजा।
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There was this time when there were no letters from you - for a long time. This was before we had phones.
I was not a part of your family, so no telegrams about you would reach me. Nor news from your family.
We had no idea if you were alive or dead.
And then, one day, I realised - I don' t need a phone call, telegram, or even letters from you to know if you are alive or dead.
We finally got a letter from you - after months. You were alive (of course), and were on a project which required zero contact with anyone.
You explained this in your letter, and then asked, by way of placating, "I hope you did not fear for me."
I wrote back, "Why would I fear?"
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