विकि जी की कविताएँ मुझे बेहद पसंद हैं।
यह कविता संग्रह मेरे लिए और भी खास है!
इसमें एक नई विधा है - कज़ल - ग़ज़ल जैसी, पर ग़ज़ल नहीं।
विकि जी की रचनाओं की खासियत ये है कि वे आपके मन में एक खिड़की सी खोल देती हैं, जो आपको चिरपरिचित दृश्यों में भी कुछ नया, अनूठा दिखा सकता है!
इस कविता संग्रह की समीक्षा करने का सबसे अच्छा तरीका कदाचित यह होगा कि उन खिड़कियों में से कुछ मैं आपको दिखा दूँ।
बात अब लफ्जों में होने लगी
दोस्त होने लगे अजनबी - अजनबी
छू आओ आसमां, जहां घूम आओ, कार्तिकेय!
दुनिया घर में होती है, ये सच गणेश जानते हैं!
बड़ी शिद्दत से जाल जो बुनता है,
सब्र से तुम्हारी राह देखता
मछली, बोलो, क्या गरीब मछुआरा,
कभी तुमको शातिर लगता है?
तब पका करते थे नित नए खयाली पुलाव
अब पुराने बासमती सी महक उठती है।
बचा तो तू भी नहीं, मुझको मिटाने वाले
मैं बस पलक से गिरा, तू नज़र से गिर गया!
जग भर की शिकायतें उस से
जो ज़रा अपना सा लगे
कसौटी पे चढता वही
जो खरा सोने सा लगे
मुश्किल था पर सीख लिया,
औरों को अनसुना कर,
आगे बढ़ना
फिर खुद ही आ गया
खुद को भी अनसुना करना
बढ़ते जाना।
जिन में महके एक भी संदल,
डर डर कर रहते वो जंगल
जानें शहर बातें सारी,
बस, जानें न ये दांव
एक इशारे पर एकजुट
कैसे हो जाते गाँव!
करनी थीं दूर सलवटें
माथे पे पड़ी हुई
हुआ यूं कि इस्तरी से
कमीज़ जल गई
इस किताब को जरूर पढ़ें!
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