Sunday, January 22, 2017

Book Review - Bheeshm Sahni - Sankalit Kahaniyaan

Bheeshma Sahni - Sankalit Kahaniyaan



आजकल, किताब पढ़ना यूँ भी आसान होता है, क्योंकि ज़्यादातर किताबें घड़े पर पानी सी होती हैं।  पर कुछ किताबें, चिपक सी जाती हैं. चाह कर भी उन से हाथ या आँखें हटाई नहीं जा सकती. ऐसी पुस्तकों के बारे में लिखने का मन करता है.  


किताब के पीछे लिखा है - "इस में कहानी की यात्रा में ही हम रस लेते हैं" ये ऐसी ही किताब है - एक एक शब्द में रस लेने वाली. हर कहानी अपने आप में एक अलग , नया संसार है. इस में जितना हुनर लेखक का है, उतना ही कौशल संकलनकर्ता का भी है. 


ये अलग वक़्तों की कहानियां भी हैं, और आज की भी. कहानी का अपना रस - जैसे "डायन" में मिलता है, वैसा शायद किसी और में नहीं. एक रोमांटिक कहानी... बस, पढ़ी जा सकती है, रुक्मणी की कल्पना की जा सकती है. उसके बारे में बताया नहीं जा सकता. कुछ कहानियों का बस, अनुभव ही अनिवार्य है. 


"साग मीट" एक और कहानी है, जिस में कितनी और कहानियां छिपी मिलती हैं. हंसी भी आती है, रोष भी होता है, दुःख भी. 


जो लोग अभी उम्र में छोटे हैं, उन्हें ४ साल तक स्कूटर खरीदन का इंतज़ार, या दंगों में बिछड़े बच्चों की खोज के किस्से, जाने पहचाने नहीं लगेंगे. और फिर मन में आता है, जो मेरे देश की जीत है, तो ये है, की ४० साल बाद, हमें ४ साल स्कूटर के इंतज़ार के बारे में कुछ भी याद नहीं. और जो मेरे मुल्क की हार है, तो ये है, कि जिस मुए हिन्दू-मुसलमान के फसाद में "पाली" और "वीरो" की कहानियां बनी , ७० साल बाद भी, उस फसाद में कोई बदलाव नहीं. मौलवी साहब कुछ और कट्टर हो गए हैं, समाज सेवक कुछ और निर्भीक।


ये कहानियां कुछ कुछ ऐसी हैं, जैसे कोई मोहल्ले में बीच में बैठा हो, और हर घर का कुछ कुछ झरोखा दीखता हो. और ऐसी भी, कि जैसे कोई माया महल में घुसे, और कोई शीशा किसी दुसरे शीशे सा न हो. हर शीशा बिलकुल अलग, पर बेहद मज़ेदार. 



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