साहित्य में, कविता के बाद मुझे कहानी की विधा ही सब से अच्छी लगती है. इसी लिए, जब कोई अच्छी किताब हाथ में आये - तो उसे औरों से सांझा करने का मन करता ही है.
एक बात मैंने बड़े सालों के बाद समझी है. जब कोई औरत लिखने के लिए कलम उठाती है, तो वो चाहे या ना चाहे, औरत होने का दर्द उस कलम में उतर ही आता है.
ये कहानियां रुकने पर मजबूर करती हैं. किताब रख कर सोचना पड़ता है.
एक ३० साल की अनब्याही लड़की है - जो अपने नानाजी की परवरिश और अपने माँ बाप की अपेक्षाएं, दोनों नावों में एक साथ सवारी करना चाहती हैं. मन में बात आती है, 'अगर वो लड़की न होती, तो ये नाँवें भी दो नहीं, एक ही होती.'
और फिर एक लड़की और आती है - जो अपने पति से बचती है, तो मामा के शिकार से निकलने का समय आ जाता है. मामा से भाग कर नौकरी करना शुरू करती है, तो दफ्तर वाले उसके अकेले होने को, उसका सुलभ्य होना समझ लेते हैं. कहानी इस लिए नहीं परेशान करती , कि कहानी है. इस लिए परेशान करती है, कि सिर्फ कहानी नहीं है. सच भी है.
एक लड़की और है, दादी से पुछती हुई, "पर समझौता हमेशा औरत ही क्यों करे?" इस सवाल पर मुस्कुरा कर किताब बंद करनी पड़ती है. सवाल ही गलत है शायद - समझौता तो शायद दोनों को ही करना पड़ता है. पर जो बातें समझाने की नहीं, वो कोई कैसे समझाए?
बड़े दिन बाद एक कहानी संग्रह, जो वाकई बांधता है.
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
3 comments:
बढ़िया समीक्षा. कोशिश रहेगी कि यह किताब पढूं
Thought provoking preview.
Onkar sir and JP sir: Thank you!
Post a Comment