Tuesday, June 03, 2014

kavita mein panchbhoot / कविता में पंचभूत

कविता में होते हैं
पंचभूत

कविता का जल
अपनी राह स्वयं ढूंढता
कविता,
किसी भी भाव को भर दे,
चाहे कैसा भी , और कितना भी हो,
उस का आकार । 

कविता का व्योम (अंतरिक्ष)
इस संसार से ऊपर, बहुत दूर ले जाए
अपने पंखों पर बिठा कर
दुनिया अपनी हो न हो
कविता अपनी होती है.

कविता , ज्यूँ वायु
गर्मी में शीतल झोंका
और कभी
ज्यूँ आंधी
तब तक उड़ाए
जब तक "होने " का भ्रम
मिट न जाए । 


और कभी कविता
पृथ्वी की तरह
बनती है सहारा
उठा लेती है
सारा बोझ
अपने शब्दों के कन्धों पर
हल्के  हो जाते हैं
हम । 

कभी कविता अग्नि बन
जलाती  है
तन मन ,
राख हो जाता है
आस पास का संसार
हम देखते हैं, मूक.

कविता में होते हैं
पंचभूत.

 

4 comments:

Himanshu Tandon said...

और कभी कविता, पृथ्वी सी
देती है आँचल माँ सा
और समा लेती है अपने गर्भ में
एक अनंत, सुखद विश्राम में लीन
मुक्त , विलुप्त हो जाते हैं हम

How do we know said...

:)

Onkar said...

very nice lines

How do we know said...

Onkar sir: thank you!