दिल्ली... तुम बहुत कड़क चाय हो!
ज़रा तपाक से दो कदम बढ़ जाऊं आगे तो
लबों पर एक तपिश का बोसा धर देती हो
जुबां खुद ब खुद लड़खड़ाती है
...
ज़रा तपाक से दो कदम बढ़ जाऊं आगे तो
लबों पर एक तपिश का बोसा धर देती हो
जुबां खुद ब खुद लड़खड़ाती है
...
प्याली से छलक कर बहते रहने की आदत सी हो गई है
घूँट घूँट क़तरा क़तरा रोज़ तुमको पीता हूँ
और तुम मुझे अन्दर ही अन्दर पी रही हो
एक दिन गुज़रता है एक चुस्की उतरती है
तेरे लहजे में रोज़ नई तल्ख़ी उभरती है
सुबह से जिस्म के चूल्हे पर सांस पकती है
तब कहीं जाकर सहन में एक रोटी पकती है
रात होती है तो इंडिया गेट पर जाकर
चुस्कियां भरता हुआ तेरी
मैं चाँद की शक्लें बदलता हूँ
एक कप दिल्ली को मीठा करने को
रोज़ शीरी कितनी नज़्में कहता हूँ...
दिल्ली... तुम बहुत कड़क चाय हो...
- देव -
घूँट घूँट क़तरा क़तरा रोज़ तुमको पीता हूँ
और तुम मुझे अन्दर ही अन्दर पी रही हो
एक दिन गुज़रता है एक चुस्की उतरती है
तेरे लहजे में रोज़ नई तल्ख़ी उभरती है
सुबह से जिस्म के चूल्हे पर सांस पकती है
तब कहीं जाकर सहन में एक रोटी पकती है
रात होती है तो इंडिया गेट पर जाकर
चुस्कियां भरता हुआ तेरी
मैं चाँद की शक्लें बदलता हूँ
एक कप दिल्ली को मीठा करने को
रोज़ शीरी कितनी नज़्में कहता हूँ...
दिल्ली... तुम बहुत कड़क चाय हो...
- देव -
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