किराये के घर हर शहर में मिल जाते हैं। और उतने वक़्त के लिए, वे हमारे पूरे घर होते हैं - जिन्हें हम दिवाली पर सजाते हैं, जहां रात को परिवार के साथ खाना खाते हैं, और बेतकल्लुफ़ी से बगलें खुजाते हैं।
किराये के घर की झिक झिक भी कहाँ होती है? न 20 साल बाद ज़ंग लगे पानी के पाइप बदलवाना, न बोरवेल को हर चौथे साल गहरा खुदवाना। कुछ नहीं करना पड़ता।
पर मन के पिछले कोने में एक चिट सी रखी रहती है, जो ये जानती है, कि ये घर बस मियाद भर का है।
किराये के मकान में हम झूले नहीं टाँगते। और बाग़बानी गमलों में करते हैं।
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Postscript:
अपना घर हर किसी का सपना नहीं होता। किराये के मकानों में जीवन काटा जा सकता है। सुख से।
This piece is in response to a small poetry discussion on a poetry Whatsapp group. Will copy paste the two original poems tomorrow with credits to the poets.
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