चुप हो तुम
बहुत चुप...
तुम बिस्तर पर साथ हो लेकिन
यूँ लगता है...
... रात बिछा कर साहिल पर
एक खामोश नदी को ताकता हूँ...
कहाँ गई वो कलकल बहती हंसी तुम्हारी
कहाँ गए वो आबशार जो तुमने पैरों में बांधे थे
कहाँ छुपा दी है तुमने
वो चढ़ी हुई त्योरियां
किस दराज में रख कर भूल गए हो
अपनी आँखों के सूरज
उठो... देखो... बोलो...
जानम ज़रा आँखें तो खोलो...
चुप हो तुम
बहुत चुप...
कहाँ गई वो तितली
जो मेरे कंधे पर उड़ आती थी
कहाँ छुपाई तुमने वो पंखुड़ी
जो होंठ मेरे छू जाती थी
मेज़ पर यह चाबियों का छल्ला क्यों रख छोड़ा है
तुमने इस घर को लावारिस सा क्यूँ छोड़ा है...
फिर हक़ से आओ न
मेरी छोटी बातों पर... फिर झाल्लाओ न
ख़त कितने भेजे हैं मैंने
ख़त से लिपटो... ख़त में बैठो... ख़त से घर आ जाओ न...
आओ... देखो.. बोलो...
मुझसे मिल कर चाहे रो लो...
चुप हो तुम
बहुत चुप...
यह आसमान पर बंधी हुई चादर को खोलो
घुटने लगा हूँ अब तन्हा मैं
तुम अपनी बातों की सांसें खोलो...
चुप हो तुम
बहुत चुप...
- देव -
बहुत चुप...
तुम बिस्तर पर साथ हो लेकिन
यूँ लगता है...
... रात बिछा कर साहिल पर
एक खामोश नदी को ताकता हूँ...
कहाँ गई वो कलकल बहती हंसी तुम्हारी
कहाँ गए वो आबशार जो तुमने पैरों में बांधे थे
कहाँ छुपा दी है तुमने
वो चढ़ी हुई त्योरियां
किस दराज में रख कर भूल गए हो
अपनी आँखों के सूरज
उठो... देखो... बोलो...
जानम ज़रा आँखें तो खोलो...
चुप हो तुम
बहुत चुप...
कहाँ गई वो तितली
जो मेरे कंधे पर उड़ आती थी
कहाँ छुपाई तुमने वो पंखुड़ी
जो होंठ मेरे छू जाती थी
मेज़ पर यह चाबियों का छल्ला क्यों रख छोड़ा है
तुमने इस घर को लावारिस सा क्यूँ छोड़ा है...
फिर हक़ से आओ न
मेरी छोटी बातों पर... फिर झाल्लाओ न
ख़त कितने भेजे हैं मैंने
ख़त से लिपटो... ख़त में बैठो... ख़त से घर आ जाओ न...
आओ... देखो.. बोलो...
मुझसे मिल कर चाहे रो लो...
चुप हो तुम
बहुत चुप...
यह आसमान पर बंधी हुई चादर को खोलो
घुटने लगा हूँ अब तन्हा मैं
तुम अपनी बातों की सांसें खोलो...
चुप हो तुम
बहुत चुप...
- देव -
as usual, translations welcome :-)
2 comments:
superb.
thank you!!
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