Monday, July 18, 2016

Kavita / Poetry


मैं रोज़ दूर भागता हूँ उस से
बड़ी छलनी है
रोज़ नया प्रपंच...
और मैं
फंदों से
भागने को आतुर
पूरी तरह से निर्बल


बड़ी मोहिनी है
जकड कर पीड़ा के इंद्रजाल में
मोह का मायाजाल बिछाती है !

2 comments:

Himanshu Tandon said...

My two cents..took off from where you left..

मैं रोज़ दूर भागता हूँ उस से
बड़ी छलनी है
रोज़ नया प्रपंच...
और मैं
फंदों से
भागने को आतुर
पूरी तरह से निर्बल

मैं रोज़ दूर भागता हूँ उस से
बड़ी मोहिनी है
जकड कर पीड़ा के इंद्रजाल में
मोह का मायाजाल बिछाती है !
और मैं
आलिंगन के बंधन में
शिथिल, निर्जीव
अनायस समर्पित

मैं रोज़ दूर भागता हूँ उस से
बड़ी निर्भीक है
नित्य नव-चरित्र
और मैं
अंतर्द्वंद के
ताने-बाने, बुनता
अपने कारावास में विलीन

How do we know said...

wah!!! You have actually completed the poem.. but then, poetry like this can never be completed, can it?