प्रकाश पुंज नहीं, सितारे-उल्का तो बिल्कुल भी नहीं। सृष्टि के चेतन होने से पहले के वे प्रकाश कण, जो किसी अदृश्य धुरी के गिर्द चक्कर लगाते थे।
हमारी नन्ही सी अर्ध-चेतना थी। न उसका कोई व्यक्तित्व था, न उसमें थी निजता।
हमें एक दूसरे में विलीन होना था, और एक हो जाना था।
चेतना की यात्रा में, विलीनता का आदेश बहुत विरला होता है। दो आत्माएँ साथ-साथ चल सकती हैं, कुछ आदान-प्रदान भी करती हैं, पर विलीनता विलक्षण ही होती है। ये कितना अद्भुत, कितना स्पेशल पल है, हमें इसका ज़रा भी अनुमान न हुआ।
जाने किस अभिमान में आ कर, हम दो प्रकाश कणों ने, एक दूसरे में विलीन होने का आदेश ठुकरा दिया।
तुम और मैं, उस आदेश से बचते, जन्म पर जन्म लेते गए। कुछ एक दूसरे की परिधि में, कुछ उस से बहुत दूर।
हम शायद प्रकाश कण से चेतन प्राणी बने होंगे, मछली, बगुला, शेर, और बहुत लंबा सफर तय करने के बाद, मानव।
किन्तु पराचेतना का आदेश केवल आदेश नहीं होता। वह नियति होता है।
नश्वर जगत के लोग समय को मापते हैं - क्षणों से ले कर सदियों तक। उसी मानक पर समझाऊँ तो, पराचेतना का आदेश वह नियति है जो स्वरूप और सदियों के ऊपर है। उसे आपका यथार्थ बनना ही होता है। आपकी स्वेच्छा पूर्णतया वैकल्पिक है। उसकी इच्छा अनिवार्यता।
अब हम, फिर से एक दूसरे के सामने हैं। एक ही कमरे में, पर एक दूसरे से कई संसारों की दूरी पर। तुम्हारा भेस, ज़ुबान, देश - सब अलग हैं। पर इस एक कमरे में, मेरी अर्ध-चेतना ने तुम्हें पहचान लिया है। तुम में विलीन होना मेरी नियति है। मुझ में विलीन होना तुम्हारी।
अब देखो, तुम्हें समझने में कितना समय लगता है।
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