Saturday, February 28, 2015

यास / hopelessness

मैं सदा तेरी किताब के
हाशिये में ही रहा हूँ
मुखपृष्ठ पर
या सहफे पर
कभी नाम नहीं आया मेरा


होली के गुब्बारे में
पानी का वज़न चाहे जितना हो
वज़ू नहीं करता कोई
उस पीठ पर फूटने वाले से

पानी के कतरे भी
ले कर आते हैं
अपना नसीब

तो मैंने कौन से सपने के तहत
पार करना था
हाशिये से सहफे  का सफर ?



2 comments:

  1. पर शायद अच्छा ही है कि
    मैं हाशिये तक ही रहा
    एक किनारे से तुझे
    उन सफ़ेद पन्नों को काला, लाल. नीला
    करते देखता रहा

    सफ़े पे होता तो शायद
    तेरी किसी गलती पर
    लकीरों के जाल के नीचे
    दम तोड़ देता

    इस तरह हाशिये से अब मैं
    अमिट हो गया हूँ
    जब कभी यह किताब अब खुलेगी
    मैं इसी किनारे से तुम्हें देखूंगा
    और हर बार पन्ना पलटने से पहले
    टीस बन तेरे सीने की
    आह बन निकलूंगा

    हाशिये की ज़िन्दगी से
    ज़िन्दगी के हाशिये का सफर
    अब तुम्हें मुबारक
    मैं इस किताब के रद्दी में
    बिकने के बाद भी इस
    हाशिये पे तेरी मज़ार की
    तरह हमेशा ज़िंदा रहूंगा

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