Friday, December 02, 2016

On social media and loneliness

शायद ऐसा ही होता है लोगों के साथ... शायद ऐसे ही शुरू होता है सब कुछ. चुप रहने का सिलसिला, चुप करा देने के सिलसिले से भी शुरू हो सकता है, और चुप होने से भी.


लोग सोचते नहीं, बोलते बहुत हैं. किसी चीज़ के बारे में विचार व्यक्त करने के लिए, उस चीज़ के बारे में जानना भी ज़रूरी है, ये कहाँ लिखा है?


 बिना सोचे बोलने वालों से मुझे सख्त चिढ़ हुआ करती थी. अब भी है.


फिर देखा, चारों ओर , लोगों की बातों का शोर. इतने लोग, इतनी बातें, ज़्यादातर वो बातें जिन्हें कहने की करने की, कोई ज़रुरत ही नहीं. और बातें भी, वो नहीं जो ऐसे ही दोंस्तों में की जाएँ। सारी दुनिया को सुनाई जाएँ और उन से टिपण्णी की उम्मीद भी हो.


वे लोग, जिनकी बातें अच्छी लगती हैं, धीरे धीरे काम बात करने लगे. फूहड़पन बेशर्म भी होता है. दानाई शर्मीली. बस  यही हुआ हमारी दुनिया के साथ. दानाई शर्मा गयी, फूहड़पन को मंच मिल गया..यही मंच आगे जा कर सोशल मीडिया बना. 


और अंदर की बातें? अंदर ही खो गयी कहीं. न कोई हमनवा, न हमराज़, न हमदम, न हबीब।

2 comments:

  1. Well said... and very precisely too.
    This is exactly what and how we all meandered off one way or the other...

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  2. बज़्म में शिरकत का भले शौंक ना होता हो
    महफ़िल बैठे तो एक जाम का लुत्फ़ वो भी उठाती है

    कहो भला, दानाई कहाँ, क्यों, शर्माती है ?

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